क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जायेंगे?
हाँ! जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे।
– बर्तोल्त ब्रेख्त
Elect Deo Kumar to the EC
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साथियों, आगामी 12 फरवरी 2021 को दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों के प्रतिनिधि निकाय कार्यकारी परिषद (EC) और अकादमिक परिषद (AC) के चुनाव होने जा रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जिस तेज़ी के साथ लागू किया जा रहा है उससे लगता है कि इस वर्ष होने वाला यह चुनाव शायद आखिरी हो। बीते 3 दशकों से शिक्षण संस्थानों पर हमले जारी हैं, लेकिन केंद्र में 2014 में भाजपा सरकार के आने के बाद से ये हमले और भी तेज हो गए हैं। यदि हम केंद्र सरकार के नीतिगत फ़ैसलों (कृषि बिल 2020, लेबर कोड 2020, आदिवासियों की जमीनों से बेदखली, नोटबंदी, प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण इत्यादि) पर नजर डालें तो हमें नव-उदारवादी हमले की गंभीरता का पता देश के टूटते बिखरते आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ताने बाने में दिखाई देगा।
वर्ष 2000 में विश्व व्यापार संगठन ने शिक्षा को “गेट्स” (General Agreement on Trade and Services) की सूची में शामिल कर दिया था। 15 दिसंबर 2015 को केन्या की राजधानी नैरोबी में भारत सरकार ने WTO-GATS के साथ किए गए समझौते के बाद ही शिक्षा में उदारीकरण और निजीकरण के रास्ते को खोलने का काम शुरू कर दिया। जनविरोधी नीतिगत हमलों की इस “क्रोनोलोजी” को दिल्ली विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में थोड़ा ध्यान से समझने की जरूरत है।
(1) 2016 में यूजीसी ने शिक्षकों के कार्यभार को बढ़ा दिया। इसका मतलब था अतिरिक्त शिक्षकों की नौकरी से छुट्टी।इसका सीधा असर दिल्ली विश्वविद्यालय के उन शिक्षकों पर पड़ता जो सालों से एडहॉक के तौर पर पढ़ा रहे थे। डीटीएफ के नेतृत्व में डूटा के साझा संघर्ष से हज़ारों शिक्षकों की नौकरी को बचाया गया।
(2) 2018 में शिक्षण संस्थानों में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और विकलांग वर्ग की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने वाले संस्थागत (200 प्वाइंट) रोस्टर को साजिशन विभागवार (13 प्वाइंट) रोस्टर में बदल दिया गया। परिणाम स्वरुप दिल्ली विश्वविद्यालय में ही कार्यरत लगभग 5000 तदर्थ शिक्षकों की नौकरी खतरे में आ गई। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के नेतृत्व में एक देशव्यापी आन्दोलन के जरिये इस जातिवादी रोस्टर के खिलाफ संसद से सड़क तक लड़ाई लड़ी गयी और सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया गया।
(3) 2018 में ही यूजीसी शिक्षकों के लिए सेवा-शर्त (करियर एडवांसमेंट स्कीम 2018) जारी किया जिसमें गेस्ट/कॉन्ट्रैक्ट पर शिक्षक रखे जाने का प्रावधान किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने आर्डिनेंस में इसे समाहित कर लिया और इसी को आधार बनाकर दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने 28 अगस्त 2019 की चिट्ठी जारी कर दी एवं तदर्थ शिक्षकों को कॉन्ट्रेक्ट पर रखने की योजना शुरू की गई। दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बंधित कॉलेज प्रिंसिपलों ने तदर्थ शिक्षकों का वेतन रोक दिया। एक बार फिर DUTA के नेतृत्व में शिक्षकों ने लड़ाई लड़ी और 28 अगस्त की चिट्ठी को वापस कराया गया।
कोरोना महामारी के दौर में “आपदा को अवसर” में बदलते हुए भाजपा-आरएसएस की सरकार ने एन॰ई॰पी॰ 2020 को बिना संसद में चर्चा किए विश्वविद्यालयों में लागू करने की घोषणा कर दी। केंद्र की इस फासीवादी, सांप्रदायिक और पूँजीपति-परस्त सरकार ने इंस्टिट्यूट ऑफ़ एमिनेंस (दिल्ली विश्वविद्यालय भी इनमें शामिल है) का दर्जा प्राप्त संस्थानों में इसे जुलाई 2021 से लागू करने जा रही है। इसके माध्यम से शिक्षण संस्थानों को डिग्री बांटने की दूकान और छात्र को ग्राहक में तब्दील किया जा सकेगा ताकि सरकार के धनपशु दोस्त मुनाफा कमा सकें। शिक्षण संस्थानों के मैनेजमेंट की जिम्मेदारी बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स (अंग्रेज ईस्ट इण्डिया कंपनी से यह मॉडल लिया गया है) की होगी और शिक्षकों की भूमिका कंसल्टेंट की होगी। मैनेजमेंट में शिक्षकों का प्रतिनिधित्व चुनाव से नहीं होगा, इसीलिए यह चुनाव आखिरी हो! महामारी के इस दौर में भी शिक्षको का DA रोक दिया गया और अब TA की रिकवरी के आदेश कॉलेज प्राचार्यों की तरफ से लगातार आ रहे हैं।
एन॰ई॰पी॰ के परिणाम आने शुरू हो गए हैं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली ने नोटिफिकेशन जारी कर स्थायी शिक्षकों की नौकरी को “रिव्यू” करने के नाम पर नौकरी से बाहर निकालने की तैयारी शुरू कर दी गयी है। इसी तरह यूजीसी ने “एकेडमिक क्रेडिट बैंक” का ड्राफ्ट तैयार कर लिया है। जिसका मतलब है मल्टीपल एग्जिट और वर्कलोड का अनिश्चित होना। इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेन्स में 60% की ही बहाली स्थायी रूप में होगी और 40% गेस्ट या कॉन्ट्रैक्ट। क्या यह भी बताना पड़ेगा कि DU को इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेन्स घोषित किया जा चुका है। ग्रांट बेस्ड से लोन-बेस्ड वाला समझौता भी किया जा चुका है। जिन स्थायी शिक्षकों के पास पीएचडी की डिग्री नहीं है उनके एसोसियेट बनने के रास्ते बंद कर दिए।
डीयू को पिछले एक दशक में केंद्र सरकार ने प्रयोगशाला में बदल दिया है- पहले सेमेस्टर, फिर चार साला कार्यक्रम, सीबीसीएस और अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति।NEP के जरिये संस्थानों की वित्तीय स्वायत्तता एवं इंस्टिट्यूट ऑफ़ एमिनेंस का दर्जा प्राप्त संस्थानों में अधिकतम 60% स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति जैसे प्रावधान समायोजन की दिशा में सबसे बड़ी बाधा हैं। साथ ही साथ आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों का राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जिक्र न होना संदेह पैदा करता है। प्रो रामगोपाल राव की अध्यक्षता में गठित समिति की आइआइटी में आरक्षण खत्म करने की सिफ़ारिशें इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं। ऐसे में DOPT रोस्टर के साथ तदर्थ शिक्षकों का समायोजन के लिए लड़ाई हमारा पहला लक्ष्य है। हमारी मांग है कि दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन अपने वादे के अनुसार समायोजन के लिए समिति का गठन करे और एक निश्चित समयसीमा के भीतर उसकी सिफारिशों को EC से पास कराकर केंद्र सरकार के पास भेजे।केंद्र सरकार उनके आधार पर अध्यादेश लाए जिससे तदर्थ शिक्षकों का समायोजन हो सके। इसके साथ ही प्रो काले समिति की रिपोर्ट को डीयू प्रशासन EC मीटिंग में रखे और महिला तदर्थ शिक्षकों के मातृत्व अवकाश पर उच्च न्यायलय के फैसलों को लागू करे।
पिछले एक दशक से दिल्ली विश्वविद्यालय के लगभग 5000 शिक्षक पदोन्नति के इंतज़ार में हैं, लेकिन कभी API के जरिये, तो कभी यूजीसी थर्ड अमेडमेंट के जरिये, तो कभी यूजीसी केयर लिस्ट में फेरबदल के जरिये प्रमोशन को रोके रखा गया और अंत में एडहॉक शिक्षण के अनुभव को प्रमोशन में जोड़ने से इनकार कर दिया गया। अंततः DUTA और FEDCUTA के नेतृत्व में चले देशव्यापी आन्दोलन के जरिये प्रो चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति 2016 के माध्यम से असोसिएट प्रोफ़ेसर के पद तक API को खत्म कराया गया और पहले प्रमोशन में एडहोक के अनुभव (4 वर्ष) को जोड़ा गया। 2018 में कॉलेज के स्तर पर प्रोफ़ेसर के पद तक पदोन्नति को सुनिश्चित किया गया।
दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक शिक्षण संस्थान को ख़त्म करने की इस साजिश में दिल्ली सरकार की भूमिका कम नहीं। पिछले डेढ़ वर्ष से दिल्ली सरकार से अनुदान प्राप्त 12 कॉलेजों के शिक्षक और कर्मचारियों के वेतन को अनिश्चित बना दिया गया है। महामारी के दौर में जब पूरा देश संकट से गुजर रहा था तब दिल्ली सरकार ने इन कॉलेज के शिक्षकों एवं कर्मचारियों के वेतन को कई महीनों तक रोक दिया और अभी तक यह प्रक्रिया जारी है। DUTA के आंदोलनों और उच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बावज़ूद भी केवल 2 कॉलेजों के शिक्षकों और कर्मचारियों का वेतन जारी किया गया। विद्यार्थियों की फ़ीस से वेतन दिए जाने का अनावश्यक दबाब दिल्ली सरकार द्वारा डाला जा रहा है।
सरकार की इन जन-विरोधी एवं शिक्षा विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ अगर कोई दिल्ली विश्वविद्यालय में लड़ सकता है तो वह डीटीएफ है जिसने डी॰यू॰टी॰ए॰ के नेतृत्व में साझा आंदोलन कर दिखाया है कि हमला कितना भी तीखा क्यों न हो उसे साझा संघर्ष से पीछे धकेला जा सकता है। सरकारी/दरबारी (NDTF) और संस्कारी संगठन (AAD) सरकार- विश्वविद्यालय प्रशासन के नीतिगत फैसलों के खिलाफ लड़ने के बजाय “मेरा वीसी, तेरा रजिस्ट्रार, इसका डाइरेक्टर, उसका प्रिंसिपल” खेल रहा है। NDTF के उम्मीदवार तो इन नीतियों का विरोध करने के बजाय सरकार की शिक्षा, किसान विरोधी कानूनों और मजदूर विरोधी नीतियों का स्वागत कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ ए॰ए॰डी॰ की उम्मीदवार दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने के लिए बनी समिति की सदस्य हैं।DTF की लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, बल्कि केंद्र सरकार और दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन के शिक्षा विरोधी फैसलों से है। शिक्षा विरोधी नीति के ख़िलाफ़ संघर्ष की बुलंद आवाज़ देव कुमार जो दो बार डी॰यू॰टी॰ए॰ की कार्यकारिणी एवं दो बार AC के सदस्य रह चुके हैं उन्हें एवं उनकी टीम को जीत दिलाकर इस संघर्ष को आगे बढ़ाएँ। रमाशंकर यादव “विद्रोही” की कविता हमें लड़ने का एक हौंसला देती हैं –
लोग हक़ छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूँ
मैं तो हक़ की लड़ाई का हमवार हूँ
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो मेरा सिर फोड़ दो
किंतु ये न कहो कि हक़ छोड़ दो
Education is not preparation for life, education is life itself. So education system should be good.
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