शिक्षा का निजीकरण नहीं सहेंगे!
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कोई सवा तीन साल पहले हमारे मुल्क में ‘अच्छे दिनों’ की आमद हुई थी तब से अब तक कुल जमा 365 X 3.25 अच्छे दिन गुज़र चुके हैं। पूरा मुल्क ‘दिन में होली रात दिवाली रोज़ मनाती मधुशाला’ की तर्ज पर उत्सव में डूबा है। किसानों की आत्महत्याएं, दलितों का उत्पीड़न, अल्पसंख्यकों का डर, श्रम का शोषण, कामगारों की छंटनी, युवाओं की बेरोज़गारी, स्त्रियों का अपमान, बच्चों का कुपोषण और असमय मौतें – ये सब ऐसे गायब हो गए हैं जैसे गधे के सिर से सींग। बिजली, पानी, सड़कें, शौचालय – सब झकास हैं, क्योंकि नोटबंदी के बाद सरकार के खजाने में लाखों करोड़ की अतिरिक्त आमदनी आ चुकी है। लोग अडानी–अडानी हुए जा रहे हैं और मुल्क पनामा–पनामा! उत्पादकता पुष्पक विमान पर चढ़कर आसमान में पहुंच गयी है और जनता दिन–रात भारत माता यानी मदर इंडिया का गाना ‘दुःख भरे दिन बीते रे भैय्या’ गाने में मगन है।
क्या कहा ? आप ऐसा नहीं मानते? यानी पोस्ट–ट्रुथ के इस दौर में ज़िद ठाने बैठे हैं कि सच बोलेंगे और सच ही सुनेंगे? फिर तो भगवान ही आपका मालिक है, जैसे कि इस देश का, जहां पिछले तीन सालों में ‘अच्छे दिन’ शब्द के मायने बिलकुल उलट गए। हमने तो ऊपर बस इसका सीधा–सीधा अर्थ बताने की कोशिश की थी, पर ज़मीनी हक़ीक़त देखें तो अर्थ सिर के बल खड़ा है। गोया कोई सूखी रोटी का निवाला आपकी ओर बढ़ाते हुए उसे छप्पन भोग की थाली बताये, या दो कौव्वे पेशे–नज़र करता हुआ कहे, ‘लो भैया, हंसों का ये जोड़ा, ख़ास तुम्हारे लिए!’
अब चूंकि आप कौव्वे को कौव्वा मानने पर ही अड़े है, तो आपसे विश्वविद्यालय में चल रहे कौव्वारोर के बारे में कुछ बातें की जा सकती हैं। वैसे तो चुनावी समय में यह कौव्वारोर कोई नयी बात नहीं है, पर इस बार इसमें कुछ ख़ास जुड़ गया है। और वह जुड़ा है इसलिए कि ‘अच्छे दिन’ ने बहुत समय तक उच्च शिक्षा के संस्थानों को छापामार तरीक़े से घेरने की कोशिशों के बाद अब पूरी तरह क़ब्ज़ाने का संकल्प कर लिया है। चौहान कमेटी की सिफ़ारिशें सात पर्दों के पीछे छुपाये बैठी एमएचआरडी क्या करने जा रही है, इसके बारे में हमें कोई ख़ुशफ़हमी पालने की ज़रूरत नहीं। इरादे नेक होते तो चीज़ें पारदर्शी होतीं। नहीं हैं। इसका मतलब, ‘अच्छे दिन’ पूरी तैयारी के साथ आ रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा क्या है? बाधा है, डूटा जैसा जुझारू मंच, जिसके साथ सार्वजनिक उच्च शिक्षा के दुश्मनों की आँख–मिचौनी लगातार चलती रहती है। जबसे इस मुल्क में उदारीकरण लागू हुआ है, उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण–निजीकरण और नौकरियों के ठेकाकरण की कोशिशें जारी हैं। तीन साल पहले जब नया निज़ाम आया, तो इन कोशिशों में भी एक नया उबाल आया। संघर्षों का रुख देखते हुए और वायदों की लाज रखने के चक्कर में FYUP तो वापस लेना पड़ा, पर CBCS के रूप में उसकी ज़्यादातर कमियों को चोर–दरवाज़े से दाख़िला दिला दिया गया। फिर आया, प्रति शिक्षक वर्कलोड बढ़ाने का वह कुख्यात फ़ॉर्मूला जिसके लागू होते ही हमारे सारे तदर्थ शिक्षक एक झटके में कॉलेजों से बाहर हो जाते। डूटा के नेतृत्व ने यह सुनिश्चित किया कि इसके ख़िलाफ़ नतीजाख़ेज़ संघर्ष हो। वह हुआ और यूजीसी को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। यह हमारे सामूहिक संघर्ष की एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। आज हालत यह है कि जिन–जिन विश्वविद्यालयों में समझौतापरस्त यूनियनें हैं, वहां ठेके पर शिक्षकों की भर्ती हो रही है और हरियाणा जैसे राज्य में तो एक फ़रमान के तहत उनके लिए 30 कक्षाएं प्रति सप्ताह लेना तय कर दिया गया है। वहीं संघर्षशील डूटा की बदौलत दिल्ली विश्वविद्यालय में तदर्थ नियुक्तियों को ठेका–प्रथा में तब्दील करने का दुस्साहस नहीं किया जा सका और प्रति सप्ताह कक्षाओं की संख्या भी यूजीसी द्वारा तय मानकों के अनुसार ही बनी रही। आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों में अकेला दिल्ली विश्वविद्यालय है जहां तदर्थ नियुक्तियों का प्रावधान है, जिसके चलते हम उन पदों पर पढ़ा रहे साथियों को उन्हीं जगहों पर नियमित करने की मांग उठा पा रहे हैं। जहां तक स्थायी नियुक्तियां शुरू करने का सवाल है, ऐसा कोई इरादा न तो सरकार का था, न ही विश्वविद्यालय प्रशासन का, लेकिन यह हमारे सामूहिक संघर्ष का नतीजा था कि अदालत ने हस्तक्षेप किया और विश्वविद्यालय को निर्धारित समय–सीमा में नियुक्तियां शुरू करने का आदेश दिया जिसकी तैयारी खुद अदालत की देख–रेख में फ़िलहाल चल रही है।
अब सोचिये कि ऐसे में अगर चुनावी कौव्वारोर में डूटा के संघर्षों और जुझारूपन को ही निशाने पर लिया जाता है, तो उसका क्या मतलब है? ‘संघर्ष नहीं मात्र समाधान’ – यह नारा तो आपने सुना होगा। थोड़े अटपटे और भ्रामक रूप में गढ़ा गया नारा है, पर मतलब साफ़ है। उन्हें शिक्षक और शिक्षा विरोधी बदलावों के सामने चट्टान की तरह अड़ जानेवाले संघर्ष नहीं चाहिए। उन्हें एक सरकारी टाइप यूनियन चाहिए जो सरकार के इरादों को अमल में लाने का रास्ता हमवार कर सके। और वे इरादे क्या हैं, यह दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज में भाषण देते हुए खुद मानव संसाधन विकास मंत्री ने इशारों–इशारों में स्पष्ट कर दिया है। उनकी समझ से हायर एंड फ़ायर की नीति ज़रूरी है, क्योंकि इससे ‘स्वस्थ प्रतियोगिता’ को बढ़ावा मिलता है (बेशक, बॉस का कृपापात्र बनने की प्रतियोगिता से ज़्यादा स्वस्थ और कौन–सी प्रतियोगिता होगी!)। उन्होंने मन बना लिया है कि संस्थानों को अभी तक जो वित्तपोषण मिलता आया है, उसे उनके प्रदर्शन के साथ जोड़ा जाएगा (क्यों नहीं? समाज के सुविधाहीन तबके से जुड़े संस्थानों को गर्त में जाती ढलान पर लुढ़का देना ही उचित है!)। HEFA के माध्यम से ग्रांट की जगह लोन देने की व्यवस्था की जायेगी (अपना खर्चा खुद उगाहिये और अपने उपभोक्ताओं से कमाकर लोन लौटाइये, क्या समस्या है!)। शिक्षक की पदोन्नति के लिए विद्यार्थियों का फ़ीडबैक उनके एपीआई के हिसाब–किताब में शामिल होगा (एपीआई का सिस्टम ख़त्म नहीं होगा, बस बदल जाएगा, थोड़ा और खराब होने की दिशा में!)। स्नातकोत्तर विभाग और कॉलेज के शिक्षकों में साफ़ अंतर किया जाएगा – रिसर्च की उम्मीद विश्वविद्यालय के विभाग के शिक्षकों से ही की जायेगी, कॉलेज वालों का काम पढ़ाना और अन्य सामुदायिक कामों को अंजाम देना होगा। इशारों–इशारों में ये बातें कहने के साथ श्री जावड़ेकर ने प्रदर्शन के आधार पर ग्रेडेड ऑटोनोमी की भी बात की, जिसका मतलब यह कि चुनिन्दा संस्थाओं को सार्वजनिक जवाबदेही और नियमन से मुक्त कर शिक्षकों और कर्मचारियों की तनख्वाह और सेवा–शर्तें तय करने, स्व–वित्तपोषित पाठ्यक्रम चलाने और मनमाने फीस वसूलने की आज़ादी दी जायेगी।
यह सब कैसे होगा अगर जुझारू डूटा का वजूद बना रहे! हमें संघर्ष के औचित्य पर सवालिया निशान लगाने के निहितार्थों को समझना चाहिए। उदारीकरण अभी देश में अपने सबसे आक्रामक रूप में है। उसे कई चुनौतियों से निपटना है। आरक्षण को व्यवहार की ज़मीन पर नाकाम करना है। पदोन्नति मांग रहे हज़ारों साथियों के गुस्से को लामबंद होने से रोकना है। उच्च शिक्षा में छिपी अरबों डॉलर के उद्योग की संभावनाओं को ज़मीन पर उतारना है। दिक्कत यह है कि जहां भी शिक्षक और विद्यार्थी जागरूक और जुझारू हैं, वहां उदारीकरण के अश्वमेध का घोड़ा खूंटे से बंध जाता है। ज़्यादा समय नहीं हुआ है, चंडीगढ़ में विद्यार्थियों के संघर्ष ने फीस की दसगुने से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी को वापस लेने पर मजबूर कर दिया।
तो कहने का मतलब यह कि उदारीकरण के शैतानी इरादों को अंजाम देने से पहले डूटा जैसे जुझारू निकाय को नख–दंतहीन करने की ज़रूरत है… और कौन नहीं जानता कि यह ख़ासा मुश्किल काम है! जावड़ेकर साहब के भाषण में जब इस सरकार के इरादे सामने आ गए, तब से डूटा को सरकारी यूनियन बनाने के इच्छुक उनके लोग उन बातों की रफूगरी करने में लगे हैं। पर रफ़ू तो तब हो ना जब कपड़ा कहीं–कहीं से मसक गया हो। यहाँ तो कपड़ा तार–तार है, रफूगरी कामयाब कैसे हो!
गरज़ कि अभी क़दम–क़दम पर लड़ना है और लड़ाई न तो सरकार की तरफ़दार यूनियन के भरोसे हो सकती है, न उनके भरोसे जिनका सामूहिक संघर्षों को भटकाने और अपनी रोटी सेंकने का इतिहास रहा है। आइए, एक जुझारू डूटा बनाएं अगर ‘अच्छे दिनों’ को अपने उलटे मायनों के साथ विश्वविद्यालय पर क़ाबिज़ होने से रोकना है।
और अगर सूखी रोटी के निवाले को छप्पन भोग मान लेने में आपको कोई आपत्ति नहीं, तो इस पर्चे के पहले पाराग्राफ के बाद की सारी बातों को भूल जाइए! बातें हैं, बातों का क्या! हिंदी के कवि मनमोहन ने इसी हाल के लिए कभी ‘सहमति का युग’ शीर्षक कविता में लिखा था: “…देखिये कमाल / एक राह से एक ही राह निकलती है / कोई दो राहें नहीं निकलतीं / एक बात से एक ही बात निकलती है / कोई दो बातें नहीं निकलतीं / अक्सर एक ही बात / अपने दो नमूने बना लेती है / जिससे बात रह जाती है / सच्चाई बस एक है / बाक़ी उदाहरण हैं / सहमति बुनियादी है / असहमति तो ऐसे ही है / जिससे सहमति घटित होती दिखाई दे / पहले ही जवाब इतना मौजूद है / कि सवाल पैदा ही नहीं होता / कैसी फुर्ती है / कि समस्या बनने से पहले ही समाधान हाज़िर हो जाता है / जितना विवाद नहीं / उससे कहीं ज़्यादा बिचौलिए हैं / दलीलें, मिसालें, सबूत / सब एक तरफ़ है / गवाह, वकील, मुवक्किल, / मुंसिफ, यहां तक कि मुद्दई / सब एक तरफ़”।