Elect Rudrashish Chakraborty to the EC
हर शिक्षक से हमारी अपील – संघर्ष के जरिये जीत के रास्ते के लिए डीटीएफ की टीम को विजयी बनायें।
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देश के कोने कोने में और डीयू में NAAC का भूत सवार है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट भाषण में अच्छी ग्रेडिंग वाले कॉलेजों को स्वायत्त बनाने की घोषणा कर दी है। वैसे तो बिड़ला अम्बानी रिपोर्ट के बाद से ही यह बहस और आंदोलन का विषय रहा है, परन्तु आज यह अवधारणा के तौर पर एक खतरा नहीं, बल्कि जीवंत सच्चाई है।
साथियों, जैसा कि हम सभी जानते हैं, WTO और GATS के तहत व्यापार में किसी भी तरह के सरकारी भेद भाव के नहीं होने और सामान प्रतियोगिता क्षेत्र (लेवल प्लेयिंग फ़ील्ड) मुहैया कराने को लेकर अलग-अलग मुल्क की सरकारों को समझौता करना होता है। जिस भी सेवा को देश की सरकार व्यापार की सूची में लायेगी, उसमें विदेशी और देशी पूँजी को बराबरी का अवसर प्रदान करवाना उस देश के सरकार की जिम्मेदारी है।
तो हुआ यह कि बिड़ला और अम्बानी के नेतृत्व में देशी पूँजीपतियों की समझ बनी कि आने वाले सालों में नॉलेज इकोनॉमी का अरबों डॉलर का व्यापार होना है, और उसमें भारतीय पूँजी को मुनाफा कमाने का अवसर नहीं गँवाना चाहिए। इसी का परिणाम था बिड़ला अम्बानी रिपोर्ट, ज्ञान आयोग, मॉडल एक्ट, यशपाल कमेटी, नई शिक्षा नीति आदि आदि। कई बिल लाये गये जो पास नहीं हो सके। इन सबसे बच-बचाकर RUSA के साथ सेमेस्टर मोड में च्वॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम को एक्सिक्यूटिव ऑर्डर के द्वारा और राज्यों को वित्तीय लोभ देकर लागू करवा लिया गया। यूजीसी के जरिये NAAC को वित्तीय सहायता के नाम पर जबरन थोप दिया गया। निजी विश्वविद्यालयों को भी NAAC से ग्रेड लेने को कहा गया। इस सारी तैयारी के पीछे उद्देश्य है, देशी पूँजी को नॉलेज इकोनॉमी में मुनाफा कमाने का अवसर मुहैया कराना! यह अवसर तभी मिलेगा जब उच्च शिक्षा को भारत की सरकार GATS के तहत व्यापार की सूची में शामिल कर समझौते के शर्तों में बंध जाये।
आप और हम यह भी जानते हैं कि कांग्रेस से लेकर बीजेपी की सरकार के दौर में यह निरंतर जारी रहा। हाँ, गति थोड़ी धीमी तब हुई जब पहली यूपीए सरकार की नाक में जनपक्षधर ताकतों की नकेल थी। तब यह देखना जरूरी है कि ग्रेड में ऊँचा और नीचा रहने का क्या अर्थ है ?
ग्रेड का सम्बन्ध ग्रांट से है। शिक्षा अगर लेवल प्लेयिंग फील्ड पर चलने वाला व्यापार हो तो जरूरी होगा कि जो सरकारी ग्रांट सरकारी कॉलेज और विश्वविद्यालय को दिया जाएगा, वह निजी देशी विदेशी पूँजी को भी दिया जाए। जिसको जितना अच्छा ग्रेड उसको उतनी ग्रांट। मतलब बीमारू ग्रेड वालों को बीमारू ग्रांट! अब या तो निजी पूँजी से मुनाफा कमाने वालों को भी सरकार ग्रांट दे या फिर सरकारी संस्थानों की ग्रांट बंद कर उन्हें अपने भाग्य पर छोड़ दे!
आपने हमने MTNL और BSNL का हश्र देखा है। निगम बनाकर अपनी मौत मरने और मारने की सरकार की नीति से विश्वविद्यालय का भविष्य जाना जा सकता है।
उच्च ग्रेड के संस्थानों को स्वायत्त बनाकर उन्हें व्यापार के लिए तैयार किया जा रहा है। वे अपना फंड फीस और अन्य माध्यमों से एवं नए नए बाजारू कोर्स के जरिये जुटायेंगे। छोटे स्वायत्त संस्थानों में ट्रेड यूनियन की भूमिका को भी समाप्त कर दिया जाएगा। ट्रस्टी लोग इस इंतजार में हैं कि कब यह मौका मिले! स्वाधीनता आंदोलन से निकली राष्ट्रवादी सोच से कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलने वाले लालाओं का परिवार आज तथाकथित राष्ट्रवादी सरकारों के जरिये देशी विदेशी वित्तीय पूँजी के मुनाफे के लिए बेचने को तत्पर है। हिन्दू कॉलेज हो या लाला श्रीराम ग्रुप के अन्य कॉलेज- यहाँ के शिक्षकों की साँस आज हलक में अटकी हुई है। शिक्षक तौबा कर रहे हैं- यह हालत है तो हमें नहीं चाहिए अच्छा ग्रेड! तो जनाब, खराब ग्रेड के कॉलेज को ग्रांट भी खराब ही मिलेगी।
जिन कॉलेज का ग्रेड नीचे होगा, वैसे कॉलेज के लिए भी जेटली जी ने SWAYAM की घोषणा की है। जी हाँ, सूचना तकनीक के जरिये बिना शिक्षक और कक्षा के सस्ती शिक्षा, और स्टार्टअप, स्टेंड अप आदि आदि दोयम दर्जे की शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए इनकी बिल्डिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर का उपयोग।
साथियों, साझा आंदोलन से ही डूटा ने पहले भी इन नीतियों के हमले को पीछे धकेलने का काम किया है। NAAC एवं मॉडल एक्ट हो या FYUP, गजट नोटिफ़िकेशन में तीसरा सुधार हो या स्थायी नियुक्ति और रोस्टर का सवाल- डूटा के साझा आंदोलन ने सरकार की नीतियों को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है। हाँ, यह चिन्हित करना जरूरी है कि इस मुद्दे पर NDTF गहरी चुप्पी साधे हुए है।
विभागों में असिस्टेन्ट प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए दिल्ली हाइकोर्ट के निर्देश से विज्ञापन आ चुका है। जल्द ही कॉलेजों में भी स्थायी नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। NDTF इसका श्रेय लेने के लिए जावड़ेकर के बयान को प्रसारित कर रहा है, तो AAD लगातार भय फैलाने की भूमिका में है। फिर नियुक्ति का सच क्या है? सरकार की स्थायी नियुक्ति की नीति और नीयत का उदाहरण पूरे देश में देखा जा सकता है। चारों तरफ अधिकांशतः ठेके पर शिक्षक रखे जा रहे हैं। असल में ‘4500 रिक्त पदों को जल्द भरो’ का डूटा आंदोलन जनमत बनाने में कामयाब हुआ। उस जनमत का ही परिणाम था कि 2002 के लॉ फैकेल्टी के एक एडहॉक शिक्षक के केस में 2016 के अंत में दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर कमेटी बनाई गई जिसमें MHRD और दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन को रखा गया। इस तरह सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन के हाथ बाँध दिए गए। समयबद्ध नियुक्ति का निर्देश हाइकोर्ट ने दिया है, जिसके तहत पहले विभाग में रिक्त पदों का विज्ञापन आया है और आगे कॉलेज का विज्ञापन आना है।
जो विज्ञापन आया है, वह पुराने और गलत रोस्टर से आया है। विश्वविद्यालय प्रशासन पार्लियामेंट्री कमेटी के निर्देश के बाद भी रोस्टर ठीक नहीं कर रहा है। हमारी साफ समझ है कि DOPT के सही रोस्टर से बैकलॉग के आधार पर नियुक्ति होनी चाहिए। इसके लिए हमें लगातार दबाव बनाना होगा। विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ स्थायी नियुक्ति की प्रक्रिया को बिना बाधित किये सही रोस्टर का संघर्ष जारी रहेगा।
क्या वजह है कि NDTF और AAD दोनों 50:30:20 का पूरी तरह विरोध कर रहे हैं? 2014-15 में दिनेश सिंह के समय वर्षों से पढ़ा रहे लोगों को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए जो लोग जिम्मेदार थे, वही आज ‘जो जहाँ उसे वहीं’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। सरकारी पार्टी NDTF सेलेक्शन कमेटी को पूरा अधिकार देना चाह रही है, तो AAD 50:30:20 डाउन डाउन के नारे लगाकर नियुक्ति की प्रक्रिया को रोकने का माहौल बना रहा है। ऐसे में हमें इस 50:30:20 को जानना जरूरी है। अभी तक स्क्रीनिंग के बाद सभी उम्मीदवार समान स्तर पर होते थे और जिसे सेलेक्शन कमेटी चाहे उसे योग्यता सूचि में स्थान मिलता था। फिक्स सेलेक्शन कमेटी से नियुक्तियों को फिक्स किया गया। दिनेश सिंह के समय नियुक्तियों में माफिया राज को लोगों ने देखा है। वर्षों से पढ़ा रहे लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। डूटा में साफ समझ थी कि लंबे समय से पढ़ा रहे लोगों को कैसे एकोमोडेट किया जाये! 2009 से 2014 तक नियुक्ति की प्रक्रिया को विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोका। सो जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है। रेगुलराइजेशन की बात आगे नहीं बढ़ने की वजह AAD की यह समझ थी कि वह चाहे एक दिन पहले लगा हो या 18 साल से- बिना साक्षात्कार के उन्हें स्थायी नियुक्ति मिले। यह माँग की गंभीरता को हास्यास्पद बनाना था। यही वजह थी कि डूटा में लंबे समय से पढ़ा रहे तदर्थ साथियों को एकोमोडेट करने के संदर्भ में कोई साझी समझ न बन सकी।
इसके बावजूद डूटा के हस्तक्षेप से 30 में 20 पॉइन्ट अनुभव के जुड़वा पाने में कामयाबी मिली। 2 पॉइंट प्रति सेमेस्टर के हिसाब से 5 साल के अनुभव को 20 अंक मिलेंगे। 10 अंक जो डोमेन नॉलेज का है और 20 साक्षात्कार का, यह सेलेक्शन कमेटी के पास होगा। 50 अंक – जो एकेडमिक्स का है, जिसमें बीए, एमए, एमफिल/पीएचडी, नेट/जेआरएफ और शोध एवं प्रकाशन आता है – हमारी समझ है कि इसे विषय की विशिष्टता और कॉलेज एवं विश्वविद्यालय की जरूरत के अनुसार अलग अलग तरह से सुनिश्चित किया जाना चाहिए। कॉलेज में डिग्री पर अधिक जोर हो तो विश्वविद्यालय में शोध एवं प्रकाशन पर। अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और गणित में हिंदी, इतिहास और राजनीतिविज्ञान से अलग तरह से पॉइंट सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह विभाग से ही तय किया जा सकता है। यह और बात है कि ए. के. भागी की नकारात्मक भूमिका के कारण 50 के वस्तुनिष्ठ निर्धारण का तरीका तय न हो सका। लेकिन डूटा की लगातार माँग पर AC में यह समझ बनी कि सेलेक्शन कमेटी रोटेट करेगी। सेलेक्शन कमेटी को प्रत्येक उम्मीदवार को 50:30:20 के आधार पर चार्ट में अंक देना होगा। ऐसे में अंततः 50 का वस्तुनिष्ठ निर्धारण करना ही होगा।
साझा संघर्ष ही मात्र उम्मीद और रास्ता भी
देशी विदेशी पूँजी के मुनाफे की नीति के खिलाफ डूटा का लगातार संघर्ष चलता रहा है। 2002 में वर्कलोड से लेकर मॉडल एक्ट और फिर सेमेस्टर, चार साला कार्यक्रम, पेंशन, प्रमोशन, स्थायी नियुक्ति तक। कई मुद्दों पर हमें जीत मिली है और कई मामलों में संघर्ष जारी है। पेंशन मुद्दे पर कई सालों के बाद कोर्ट से जो जीत हासिल हुई उसे सरकारी फरमान ने वहीं का वहीं लटका दिया है। प्रमोशन पर कोई महत्त्वपूर्ण कामयाबी नहीं मिली है। सालों से इंतजार और संघर्ष के बाद शिक्षकों को प्रमोशन के लिए कोर्ट जाने को मजबूर कर दिया गया है। अर्द्ध सरकारी और स्वायत्त संस्थानों के लिए सातवें वेतनमान के नोटिफ़िकेशन में बहुत साफ साफ कहा गया है कि अतिरिक्त भार का मात्र 70 प्रतिशत सरकार वहन करेगी और 30 प्रतिशत उसे खुद व्यवस्था करनी होगी। ए. के. भागी कहते हैं कि यह कांग्रेस की सरकार में 80 प्रतिशत का था। क्या इसकी वजह से वेतन और भत्तों में कटौती हुई? तो साथियों यह समझने की जरूरत है कि यही दौर था जब पेंशन, प्रमोशन, और स्थायी नियुक्ति पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गयी। अतिरिक्त भार को कम करने का यह तरीका भी देखा है लोगों ने।
शिक्षकों ने दे दिला देने की सरकारी ट्रेड यूनियन को देख लिया है, और निराशा हताशा में डालकर दलाली की राजनीति को भी जान लिया है। जो भी जीत शिक्षकों को हासिल हुई है वह संघर्ष मात्र से। हर शिक्षक से हमारी अपील- संघर्ष के जरिये जीत के रास्ते के लिए डीटीएफ की टीम को विजयी बनायें।
Polling on 9 February (Thursday), 10.30 am to 4.30 pm
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V S Dixit
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