हमारी एकजुटता क़ायम है, हमारा संघर्ष जारी है
ए.सी. और ई.सी. के चुनावों की घोषणा एक ऐसे समय में की गई है जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय की शह पर विश्वविद्यालय के आक़ाओं द्वारा मनमाने और निहायत ग़ैरआकादमिक ढंग से स्नातक पाठ्यक्रमों में सेमेस्टर लागू करने की चालों के खिलाफ़ हमारा लंबा, तक़लीफ़देह, लेकिन सच्चे मायनों में ऐतिहासिक संघर्ष चल रहा है। चुनाव की तारीख़ें उसी दिन घोषित की गईं जिस दिन सेमेस्टर प्रणाली से पढ़ाने के अदालती आदेश से हमारे संघर्ष को एक धक्का पहुंचा था। निश्चय ही, उस आदेश ने कुछ हद तक हताशा और दिशाहीनता की स्थिति पैदा की। इसीलिए आज ज़रूरी है कि हम साल भर से ज़्यादा समय से जारी इस संघर्ष पर और संघर्ष के दौर की ऐतिहासिक एकजुटता पर फिर से निग़ाह डालें, ताकि हमारा संकल्प कमज़ोर न पड़ने पाए। हमें अपनी इस लड़ाई को उच्च शिक्षा में नव–उदारवादी नीतियों के खिलाफ़ बढ़ते विश्वव्यापी संघर्ष के हिस्से के रूप में भी देखना होगा।
हम जानते हैं कि यह सेमेस्टर प्रणाली उन्हीं नवउदारवादी ‘‘सुधारों’’ के पैकेज का एक हिस्सा है जिन्हें आगे बढ़ाने की क़वायद यह सरकार कर रही है। इस क़वायद का मक़सद है, घरेलू और विदेशी निजी मुनाफ़ाखोरों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र को खोलना और शिक्षा को एक बिकाऊ माल में तब्दील कर देना। इसके ढांचे में दिल्ली विश्वविद्यालय की उस शिक्षण–अधिगम–प्रक्रिया के लिए न कोई जगह है और न ही सरोकार, जो अपनी तमाम कमियों के बावजूद अभी भी इस मुल्क़ में बहुत ऊंचे स्थान की हक़दार है। इस शिक्षण–अधिगम–प्रक्रिया को यह सेमेस्टर प्रणाली नेस्तनाबूद कर देगी, यही समझ हमारे एकताबद्ध संघर्ष को चलाने वाली ताक़त है।
जिस तरीक़े से इस सेमेस्टरीकरण को थोपा गया है, वह और भी ख़तरनाक है। ए.सी. के अध्यक्ष के तौर पर तत्कालीन कुलपति ने अपने ही द्वारा मंगाए गए फ़ीडबैक पर सदन में बहस कराने से मना कर दिया और निर्वाचित सदस्यों ने प्रक्रिया को लेकर जो ठोस आपत्तियां उठाई थीं, उन्हें ख़ारिज करते हुए 13 मई, 2010 की ए.सी. की बैठक एकाएक ख़त्म कर दी। यह सब तब जबकि बगैर बहस के जल्दबाज़ी में क़दम उठाने के औचित्य पर कई संकायाध्यक्ष, विभागाध्यक्ष और अन्य प्रोफ़ेसर भी बार–बार सवाल खड़े कर रहे थे।
नवउदारवादी ‘‘सुधारों’’ के तहत उच्च शिक्षा के विस्तार के लिए निजी निवेश को ज़बर्दस्त तरजीह दी गयी है। ऐसे निवेश को सुलभ बनाने के लिए अकादमिक ढांचे के बदलाव के ज़रिये तथा अनेकानेक बिलों के ज़रिये शिक्षा का व्यावसायीकरण करना है। इसीलिए विदेशी शैक्षिक संस्थान बिल, शैक्षणिक ट्रिब्यूनल बिल, द प्रोहिबिशन ऑफ़ अनफ़ेयर प्रैक्टिसेज़ इन एडूकेशनल इंस्टीट्यूशंस बिल, द यूनिवर्सिटीज़ फ़ॉर इन्नोवेशन बिल, द नेशनल कमीशन फ़ॉर हायर एडूकेशन ऐंड रिसर्च बिल, द नेशनल ऐक्रेडिशन रेगुलेटरी अथॉरटी फ़ॉर हायर एडूकेशनल इंस्टीट्यूशंस बिल – ये सब नमूदार हुए। मानव संसाधन विकास मंत्री अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा आदि देशों से भी निवेश आकर्षित करना चाहते हैं। चाहे वह ओबामा का दौरा हो या मंत्री जी का विदेश–भ्रमण, इनका एकसूत्री एजेंडा शिक्षा में एफ़.डी.आई. लाने के लिए क़ानूनों को बदलना है।
‘‘सुधारों’’ के इस पैकेज के तहत हमारी सेवा–शर्तों में सख़्त बदलाव किये जाने हैं – प्रोन्नति के रास्ते में बाधाएं, पेंशन से वंचित करने की योजनाएं, बेतुके प्वाइंट–सिस्टम द्वारा शिक्षकों की नकेल कसना और नियुक्तियों मे अनुबंध/ठेके की प्रणाली को बढ़ावा देना। ये क़दम शिक्षण के पेशे को आकर्षक बनाने के छठे वेतन आयोग के दावों की पोल खोल देते हैं।
हमारे इस संघर्ष में ई.सी. और ए.सी. में निर्वाचित प्रतिनिधित्व अहम और अपरिहार्य हथियार रहा है। आने वाले दिनों में हमारे चुने हुए नुमाइंदों को स्नातक स्तर पर सेमेस्टरीकरण के खिलाफ़ इन निकायों में लड़ाई लड़नी है। उन्हें नवउदारवादी ‘‘सुधारों’’ की मुहिम के खिलाफ़ भी लड़ना है। उन्हें हमारी सेवा–शर्तों में किये जाने वाले प्रतिकूल बदलावों का भी मुक़ाबला करना है जो शिक्षकों को ऐसे विचारहीन कठपुतलों में तब्दील कर देंगे जिनका मुख्य काम शिक्षण और शोध में सर्जनात्मकता तथा वैचारिकता बढ़ाने की जगह प्वाइंट इकट्ठा करना होगा।
सरकार विश्वविद्यालय के निकायों में निर्वाचित प्रतिनिधित्व को कम करने पर आमादा है, क्योंकि वह इन्हें ‘‘सुधारों’’ के रास्ते की अड़चन मानती है। अकादमिक मत और प्रतिरोध को दबाने के लिए जिस तरह कुलपति ने बार–बार आपात्कालीन अधिकारों का इस्तेमाल किया है, जिस तरह ए.सी., ई.सी. के अध्यक्ष पद और यहां तक कि संकायों, विभागों तथा पाठ्यक्रम समितियों के अध्यक्ष पद का दुरुपयोग किया गया है, उससे पता चलता है कि ‘‘सुधारों’’ की आलोचना को बर्दाश्त करने की सलाहियत नहीं रह गयी है। इस रुझान के खिलाफ़ हमें निर्णायक लड़ाई छेड़नी होगी।
रेडियोऐक्टिव कोबाल्ट-60 से युक्त गामा सेल के कबाड़ी बाज़ार में बेचे जाने के मामले में जिस तरह जांच के नाटक के बाद पूर्व कुलपति प्रो. पेंटल को सफ़ाई से निकल जाने का मौक़ा सरकार ने दिया है, वह विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकार की मिलीभगत का एक नमूना है। तुम हमारा एजेंडा लागू करवाओ, हम तुम्हें महफ़ूज़ रखेंगे – इस समीकरण की रौशनी में पूरे प्रकरण को देखने की ज़रूरत है। इस रुझान के खिलाफ़ भी हमें लड़ाई तेज़ करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि निष्पक्ष जांच के ज़रिये दोषियों को सामने लाया जाए और उन पर उचित कार्रवाई हो।
मौजूदा हालात विश्वविद्यालय के सभी शिक्षकों से और उनके चुने हुए नुमाइंदों से अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण सक्रियता की मांग करते हैं। हमें विरोध के पारंपरिक तरीकों के साथ–साथ नवाचारी तौर–तरीकों की ओर भी बढ़ना होगा। मसलन, कड़ी निगरानी रख कर नियमों के उल्लंघनों और मनमाने निर्णयों को सामने लाना, शिक्षा को प्रतिकूल रूप में प्रभावित करने वाले मुद्दों से जनसंचार माध्यमों को आग़ाह करना, ए.सी. और ई.सी. के सदस्यों को अपनी राय के पक्ष में खड़े होने के लिए तैयार करना और अंतिम उपाय के तौर पर कानूनी लड़ाई की दिशा में विचार करना। सेवा–शर्तों और प्रोन्नति के आधारों में किये गये नकारात्मक बदलावों के खिलाफ़ हमें निर्णायक लड़ाई छेड़नी है और इन्हें वापस लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है। साथ ही, स्नातक पाठ्यक्रमों में सेमेस्टर प्रणाली के खिलाफ़ अपने संघर्ष को पूरे जीवट के साथ जारी रखना है।
हम शिक्षक साथियों से अपील करते हैं कि इस चुनाव को अपने साहसिक संघर्ष की ही एक कार्रवाई के तौर पर देखें और भारी तादाद में मतदान में हिस्सेदारी निभा कर विश्वविद्यालय और कॉलेजों के हाकिम–हुक्काम को यह संदेश दें कि हम लड़ने के लिए तैयार हैं।
23 दिसम्बर 2010 को, प्रातः 10.30 से शाम 5.30 तक मतदान में हिस्सा लेकर
विश्वविद्यालय के विधायी निकायों में इनकी जगह सुरक्षित करें!
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कार्यकारी परिषद् (ई.सी.) के लिए
1 राजीब रे
दर्शन विभाग, किरोड़ीमल कॉलेज, मो. 9868169879
विद्वत् परिषद् (ए.सी.) के लिए
2 रेणु बाला
हिंदी विभाग, ए.आर.एस.डी. कॉलेज, मो. 9871959997
15 विनोद कुमार वर्मा
अंग्रेज़ी विभाग, महाराजा अग्रसेन कॉलेज इतिहास विभाग, मो. 9811147816
21 राकेष कुमार
हिंदी विभाग, रामलाल आनंद कॉलेज, मो. 9899686959
29 शिव दत्त
इतिहास विभाग, शहीद भगत सिंह कॉलेज (सांध्य), मो. 9873050032
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डेमोक्रेटिक टीचर्स’ फ्रंट